मिलन





इक आह की आवाज से, रोम-रोम तर-बतर होता है
पसलियों की ध्वनि थम सी जाती है 
जब कुमुदनी और भ्रमर का मिलन होता है।


जो तय है रसपान इसी उन्माद में
प्यास अधरों की जो पहुँचती है ऊरूज पर
जकड़ता है बाहों में वो जो कोमल कली
तिश्नगी बुझ न जाए की भय से ।


बज उठते हैं ढोल, नगाड़े - मृदंग शोर करें
कलेजा आँखों में उतर आता है, अंग एक-एक बोल पड़ें 
जकड़न में है तू मेरी कुमुदनी, मैं तेरे आगोश में
तय कर मिलन ये ऐसा जो कभी न होता है ।


तलब लगी है जो मेरी, इंतजाम कुछ ऐसा कर
चाहे सुला दे भ्रमर को अपना विष पिला कर ।

- अम्बिकेश कुमार 'चंचल'

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