संवाद - एक सामाजिक बंधन

Ambikesh Kumar Chanchal

संवाद - एक सामाजिक बंधन


तुम्हारे चेहरे के नूर से
अभिभूत हूँ मैं
बेशक माहताब की
लालिमा तुम्हारी
खींचती है मुझे अक्सर
तुम्हारी तरफ


नज़रों के प्रहार से
बच नहीं पाता हूं
सच ही है कि हर क्षण
मृदुल ध्वनि से
अपने कर्णों की प्यास बुझाने
मैं यहां चला आता हूं


तुम्हारे ये खुले हुए केश
मुझे ज्येष्ठ मास का
पथिक बनाते हैं
मदहोश सर्पिणी की भांति
तुम्हारी लचकती हुई कमर
दिल में तरंगें उठाती हैं


चीख-चीखकर मुझसे
ये मेरी जवानी
तुम्हारे उभरे हुए
बदन के सामने
आत्मसमर्पण करने का
हुक्म देती है


हे मोहतरमा !
इस बंद दरवाजे के पीछे
चाहे जितना लाड-प्यार दूं
परन्तु सत्य यही है
मुझे तुमसे इश्क़ करने की
इजाजत नही है |


- अम्बिकेश कुमार 'चंचल'


Comments

  1. Dr. Archana PandeyMay 16, 2020 at 1:46 AM

    शानदार...... मुझे आपकी पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगती हैं । ऐसे ही लिखते रहें

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  2. बहुत सुन्दर चंचल जी

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