परशुराम का अग्रज हूं




माथे पर त्रिपुंड धरूं
छाती में सिंह - मुंड धरूं
परशुराम का अग्रज हूं
फकत पर्शुओं से मैं क्यों डरूं ?

मुश्किल जब जग में जीना हुआ
हलाहल शिव को पीना हुआ
चेलाई जब नीलकंठ की करूं
कोरे विषधरों से भला मैं क्यों डरूं ?

ईर्ष्या-नाद करता दुश्मन जहां पड़ा है
सीना तान हिमालय वहां खड़ा है
भारत - भूमि की धूलि माथ धरूं
गीदड़भभकियों से तेरी मैं क्यों डरूं ?

अपनी चंदा की यारी है
मंगल से निमंत्रण आ' री है
सुदूर जलते चूल्हे से, खुशबू चुराते लोगों
बिरादरी तुमसे भला में कैसे करूं ?

जात-पात की बात नहीं
बात सभ्य समाज की आती है
सौ शहर जब तुम गंध पिटे
बाहों में भला मैं कैसे भरूं ?

परशुराम का अग्रज हूं 
फकत पर्शुओं से मैं क्यों डरूं ?

© अम्बिकेश कुमार चंचल

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